Wednesday, September 7, 2011

कुर्सी से कैसे दूर रखा जाए गहराई से सोच रहे थे

हंसमुख जी ने शिक्षण  संस्था बनायी नव धनाड्य मित्रों से
धन सहयोग लिया
सहयोग के अनुरूप अध्यक्ष ,उपाध्यक्ष बनाया, सोचते थे
मित्र खुश रहेंगे ,वे निर्विघ्न कार्य करते रहेंगे
संस्था चल निकली ,नाम उसका होना लगा
शहर में हर व्यक्ति उसे जान ने लगा
संस्था के साथ हंसमुख जी का रूतबा भी बढ़ गया
हर महत्व पूर्ण व्यक्ति उन्हें जानने गया
मित्रों को ये अखरने लगा धन उनका, सम्मान किसी का
गले में अटकने लगा
सारे फैसले हंसमुख जी करते थे,अब फैसलों में उनका भी हाथ हो
सब उन्हें जान ने लगें ,ऐसा सोचने लगे
दिलों में फर्क आने लगा,मतभेद  बढ़ने लगा दो गुट बन गए,
निरंतर एक दूसरे को नीचा, दिखाने का अवसर दूंढ़ने लगे,
मतभेद की खबरें,अखबारों की सुर्खी बन ने लगी ,
बात अदालत  पहुचीं,तारिख के चक्कर में अटकी
संस्था अधमरी  हो गयी ,शिक्षक और शिक्षार्थियों के लिए
समस्या खडी गयी
हंसमुख जी निराश हो गए,जिन मित्रों को संस्था में लिया
वो ही विरोध में खड़े हो गए
अब एक नयी संस्था बना रहे हैं, धनाड्यों को ढून्ढ रहे हैं
फूँक फूँक कर कदम रख रहे हैं
धन मिल जाए पर,कुर्सी से कैसे दूर रखा जाए
गहराई से सोच रहे थे
28-09-2010

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