Saturday, September 17, 2011

तूँ रात खडी थी छत पे (हास्य कविता)

हँसमुखजी
घर की छत पर खड़े थे
नीचे सड़क पर
एक खूबसूरत बला को
जाते देखा
तो चंचल मन मचल पडा
ऊंची आवाज़ में
मुंह से  निकल पडा
तूँ रात खडी थी छत पे
मैंने समझा की चाँद
निकला
दूर खड़े अबला के
पहलवान भाई के
कान में पडा
वो भी चिल्ला कर
गाने लगा
तूँ छत से नीचे आजा
पूनम के चाँद को
अमावस का बना दूंगा
थोबड़े को चाँद के
धरातल  में बदल दूंगा
बाल काट कर गंजा
कर दूंगा 
आने वाली पुश्तों के भी
बाल नहीं होंगे
चेहरा देख कर
हर आदमी को निरंतर
हंसने पर मजबूर
कर दूंगा
17-09-2011
1519-90-09-11

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